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काव्य-परंपरा (12 जनवरी 2017), मुखपृष्ठ संपादकीय परिवार

कविताएँ
श्रीधर पाठक

हिंद-महिमा

जय, जयति-जयति प्राचीन हिंद
जय नगर, ग्राम अभिराम हिंद
जय, जयति-जयति सुख-धाम हिंद
जय, सरसिज-मधुकर निकट हिंद
जय जयति हिमालय-शिखर-हिंद
जय जयति विंध्य-कंदरा हिंद
जय मलयज-मेरु-मंदरा हिंद
जय शैल-सुता सुरसरी हिंद
जय यमुना-गोदावरी हिंद
जय जयति सदा स्वाधीन हिंद
जय, जयति-जयति प्राचीन हिंद।

स्वराज-स्वागत

(भारत की ओर से)

आऔ आऔ तात, अहो मम प्रान-पियारे
सुमति मात के लाल, प्रकृति के राज-दुलारे
इते दिननतें हती, तुम्हारी इतै अवाई
आवत आवत अहो इति कित देर लगाई
आऔ हे प्रिय, आज तुम्हें हिय हेरी लगाऊँ
प्रेम-दृगन सों पोंछि पलक पाँवड़े बिछाऊँ
हिय-सिंहासन सज्यौ यहाँ प्रिय आय विराजौ
रंग-महल पग धारि सुमंगल-सोभा साजौ
तहाँ तुम्हें नित पाय प्रेम-आरती उतारूँ
सहित सबै परिवार प्रान धन तन मन वारूँ
माथे दैउँ लगाय बड़ौ सौ स्याम दिठौना
ओखी दीठि न परे, दोख कछु करै न टौना
राखौ यहाँ निवास निरंतर ही अब प्यारे
यातें हमहूँ तात अंत लों रहैं सुखारे।

बलि-बलि जाऊँ

1.

भारत पै सैयाँ मैं बलि-बलि जाऊँ
बलि-बलि जाऊँ हियरा लगाऊँ
हरवा बनाऊँ घरवा सजाऊँ
मेरे जियरवा का, तन का, जिगरवा का
मन का, मँदिरवा का प्यारा बसैया
मैं बलि-बलि जाऊँ।
भारत पै सैयाँ मैं बलि-बलि जाऊँ।

2.

भोली-भोली बतियाँ, साँवली सुरतिया
काली-काली जुल्फोंवाली मोहनी मुरतिया
मेरे नगरवा का, मेरे डगरवा का
मेरे अँगनवा का, क्वारा कन्हैया
मैं बलि-बलि जाऊँ।
भारत पै सैयाँ मैं बलि-बलि जाऊँ।

निज स्वदेश ही

निज स्वदेश ही एक सर्व-पर ब्रह्म-लोक है
निज स्वदेश ही एक सर्व-पर अमर-ओक है
निज स्वदेश विज्ञान-ज्ञान-आनंद-धाम है
निज स्वदेश ही भुवि त्रिलोक-शोभाभिराम है

सो निज स्वदेश का, सर्व विधि, प्रियवर, आराधन करो

अविरत-सेवा-सन्नद्ध हो सब विधि सुख-साधन करो।

क्या पता कॉमरेड मोहन
(उपन्‍यास)

संतोष चौबे

यह उपन्यास इस मसले पर विचार करता है कि क्रांतिकारी विचारों पर आधारित राजनीतिक संगठन भी उसी तरह के राजनीतिक दुश्चक्र में क्यों फँस जाते हैं जिस तरह के राजनीतिक दुश्चक्र में देश के लगभग सभी राजनीतिक दल फँसे हुए हैं। प्रख्यात आलोचक प्रहलाद अग्रवाल कहते हैं कि, ''उपन्यास में इस सत्य की स्थापना बलपूर्वक की गई है कि वर्तमान समय की तीव्रतम गति के साथ तालमेल बनाने में पहले से बनाई गई धारणाओं का प्रक्षेपण हमें किसी मुकाम तक नहीं ले जा सकता। विचार से पहले मनुष्य है और दुनिया का सारा ज्ञान-विज्ञान इसी मनुष्य की बेहतरी के लिए है। विचार को वस्त्रों की तरह पहिना, ओढ़ा-बिछाया नहीं जा सकता। वह क्रिया की आंतरिक ऊर्जा है, उसे तलवार की तरह लहराया नहीं जा सकता। यथार्थ को पहचानने की आलोचनात्मक दृष्टि खोकर हम विचारधारा को विकसित करने की जगह उसकी प्रभावोत्पादक प्रसार क्षमता को लुंठित कर देते हैं।''

कहानियाँ
योगेंद्र आहूजा
लफ़्फ़ाज़
इतने सारे शब्द
वंदना राग
नमक
दो ढाई किस्से
राकेश मिश्र
पिता-राष्‍ट्रपिता
कोई भी एक जगह

विमर्श
कृपाशंकर चौबे
दलित विमर्श की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और मीडिया

आलोचना
अरुण होता
बदलते परिदृश्य के स्पंदन को अभिव्यक्त करने वाली कहानियाँ (गीताश्री की कहानियों पर एकाग्र)

विशेष
अमिष वर्मा
उन्नीसवीं सदी का हिंदी नवजागरण बनाम हिंदी-उर्दू की रस्साकशी

बाल साहित्य-कहानियाँ
अमिताभ शंकर राय चौधरी
रिजल्ट
आसमानी धागे

कुछ और कहानियाँ
सुशांत सुप्रिय
वे
किस्मत
पाँचवीं दिशा
मेरा जुर्म क्या है?

संरक्षक
प्रो. गिरीश्‍वर मिश्र
(कुलपति)

 संपादक
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फोन - 07152 - 252148
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समन्वयक
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फोन - 09970244359
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विशेष तकनीकी सहयोग
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ISSN 2394-6687

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